Wednesday, August 03, 2022

कन्नौजी शब्दकोश

 कन्नौजी शब्द


कोश




Monday, January 03, 2022

अहिले ने गंगापार उजारो

 अहिले ने गंगापार उजारो।

खुटिया बूढ़ि नरौधो बूढ़ो, बूढ़ि गओ भइँसारो
खद्दीपुर की गढ़ी बूढ़ि गई कहा करइ राजा बेचारो
मका बूढ़ि जब ककुनी बूढ़ी बूढ़े उद्द बिचारे 
बउ अहिलो मूँड़न पइ पहुँचो कहा करइ मउठी बेचारो  
अहिले नही गंगापार उजारो. 

-रमला कुर्मी
अताईपुर, जिला- फर्रुखाबाद

Sunday, March 24, 2019

ग्रामगीत

“ग्रामगीत प्रकृति के उद्गार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है! छन्द नहीं, केवल लय है!! लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है!!! ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे ही गान ग्रामगीत हैं।”
       
-रामनरेश त्रिपाठी
कविता कौमुदी, भाग-5, प्रस्तावना, पृ०-1-2

Wednesday, August 22, 2018

लोरी


 "हमारे अलंकार शास्त्रों में नौ रसों का उल्लेख है, पर लोरियों में जो रस प्राप्त होता है, वह शास्त्रोक्त रसों के अन्तर्गत नहीं है। अभी-अभी जोती हुई जमीन से जो गंध निकलती है, या शिशु के नवनीत कोमल देह से जो स्नेह को उबाल देने वाली गंध है, उसे फूल, चन्दन, गुलाबजल, इत्र वा धूप की सुगंध के साथ एक श्रेणी में रखा नहीं जा सकता। सभी सुगंधों के मुकाबले में उसमें एक अपूर्व आदिमता है, उसी प्रकार लोरियों में एक आदिम सुकुमारिता है, जिसकी मधुरता को बाल्यरस नाम दिया जा सकता है। यह तीव्र नहीं है, गाढ़ नहीं है, वह बहुत ही स्निग्ध, सरस और युक्ति तथा संगीत से हीन है।............... रुचि भेद के कारण संभव है कि सबको न भाये, पर इनको स्थायी रूप से संग्रह करके रखना चाहिए, इस सम्बंध में शायद दो राय नहीं हो सकती। यह हमारी राष्ट्रीय सम्पत्ति है।" 

-[ प्रस्तावना, बेला फूले आधी रात से ]


Wednesday, August 15, 2018

कला गाँवों में पनपती है

माखन लाल चतृर्वेदी जी अपने निबंध "कला और गाँव" में लिखते हैं---

"कला गाँवों में पनपती है, शहरों में नहीं। हम पकवान खाकर रसोइये पर प्रसन्न होते हैं- काश किसान पर रीझते तो कितना अच्छा होता ? जिस समय सिर पर से पानी बहता हो, गले में साँप सोने न दे रहा हो, बदन पर लिपटा चिथड़ा हो और पास में पार्वती-पर्वत पुत्री खड़ी पसीना पोंछ रही हो, जब ऐसे उस गरीब पर मस्तक झुके तभी कला की सच्ची पूजा है- शंकर-पूजा है। वह किसान ही हमारा शंकर है। साँप टैक्स है, चिथड़ा गरीबी है, पार्वती उसकी पत्नी है। साहित्यिक कहता है, मेरी कविता में अलंकार है, मेरी कला सुन्दर है। मुझे उस किसान से क्या सम्बंध ? भाड़ में जाय तेरा अलंकार और तेरी कला। अलंकार खेतों में लहलहा रहे हैं और तू अपने अलंकार और कला को चिल्ला रहा है। मानव के इतने बड़े दुश्मन, तुझे हम साहित्यक कहें....।"

-माखनलाल चतुर्वेदी

लोक-संस्कृति

विभिन्न बोलियों में जो लोक साहित्य रचा गया है लोक-संस्कृति का मूल वहाँ है और समग्र लोक साहित्य से भारतीय संस्कृति निर्मित हुई है।
लोक-संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है, उलटे शिष्ट समाज लोक-संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है।

-डा० जगदीश व्योम